ऋग्वेद में सती प्रथा का उल्लेख नहीं है। एकाध जगहों पर सिर्फ प्रतीकात्मक रूप में इसका जिक्र हुआ है। भारत में आर्य महिलाओं की अधिकांश आबादी जलवायु में परिवर्तन एवं युद्ध आदि की वजह से मृत्यु को प्राप्त हो गई। फलतः औरतों की संख्या में कमी आई। उन्हें अनार्य लड़कियों से शादी करनी पड़ी। आर्यों एवं अनार्यों के बीच जो युद्ध हुआ करते थे उसके मूल में दो बातें थीं। पहली तो यह कि आर्य, अनार्य लड़कियों को चुरा या उठा लाते थे और दूसरी गायों की चोरी।
ऋग्वेद में देवियों की संख्या में अपेक्षाकृत कमी व बहुपति विवाह भी इसी दिशा की ओर संकेत है।
युद्ध वैदिक अर्थतंत्र का एक प्रमुख आधार था। वीर पुरुषों की उत्पत्ति के लिए महिलाओं की आबादी में निरंतर वृद्धि एक अनिवार्य शर्त थी। शायद यही वजह है कि आर्य सती प्रथा से अवगत होते हुए भी इसे तरजीह देना कतई पसंद नहीं करते थे। महत्वपूर्ण बात है कि पूर्ववैदिक काल में स्त्रियों की सामाजिक हैसियत भी खासी अच्छी थी। विधवाओं के पुनर्विवाह की हमें चर्चा मिलती है। ऐसा प्रतीत होता है कि पूर्ववैदिक काल का जो आर्थिक ढांचा था उसमें महिलाओं को प्रमुख स्थान प्राप्त है। यह तथ्य मतलब से खाली नहीं है कि आर्य कन्याओं के लिए दुहितृ शब्द का इस्तेमाल किया है। ऐसा कहा जा सकता है कि संपत्ति, जिसमें मूलतः पशुधन शामिल था, का हस्तांतरण औरत से औरत के हाथों में ही होता था। सती जैसी प्रथाओं पर बल देना तत्कालीन आर्य समाज के लिए अत्यंत ही अलाभकारी साबित हो सकता था। शायद यही वजह है कि ऋग्वेद में सती का उल्लेख सिर्फ प्रतीकात्मक रूप में है। [ महाकाव्य काल ] महाभारत में हमें रामायण की तुलना में कबीलाई समाज के अधिक अवशेष प्राप्त होते हैं, इसलिए विभिन्न कबीलों के बीच युद्ध की संभावना भी अधिक रही होगी। स्वयं महाभारत के युद्ध में लगभग सारा भारत शामिल हुआ प्रतीत होता है। इसलिए महाभारत में हम विधवा पुनर्विवाह एवं नियोग दोनों ही प्रथाओं का उल्लेख पाते हैं। इस ग्रंथ में संतानोत्पत्ति की शक्ति प्राप्त करने के पहले ही लड़कियों की शादी कर देने पर जोर दिया जाने लगा जिसके पीछे उनकी मानसिकता अधिक से अधिक संतानोत्पत्ति की ही रही होगी। लोगों की आम धारणा थी कि मासिक काल में नारियों में संतानोत्पत्ति की अपार शक्ति होती है। अतः इसका वे एक भी अवसर हाथ से निकल जाने देना न चाहते थे। यही वजह है कि महाभारत सती प्रथा के मामले में उदासीन है। गुप्तकाल तक आते-आते समाज में नारियों की स्थिति दयनीय हो जाती है। उसकी श्रेणी शूद्रों की श्रेणी के साथ मिला दी जाती है। उसे स्वयं एक संपत्ति का दर्जा दे दिया जाता है। नियोग की प्रथा समाप्त हो चुकी होती है। बाल विवाह का चलन व्यापक होता है और विधवाओं के लिए आचरण के कठोर नियम बनते हैं। गुप्तकालीन स्मृतियों में विधवा के जीवन के दो मार्ग बतलाए गए हैं-ब्रह्मचारिणी अथवा सती। [विष्णु तथा वृहस्पति ] छठी सदी के एरण (मध्य प्रदेश) लेख में भानुगुप्त के सेनापति गोपराज की पत्नी के सती होने का उल्लेख मिलता है। भारतीय इतिहास में यह सामंतवाद का काल है जिसमे स्त्री की पुरानी गरिमा जाती रही। दास अपने सामंत के प्रति वफादार था तो छोटे सामंत अपने बड़े सामंत के प्रति। निष्ठा के इस नये युग में पत्नी अपने पति की वफादार बनी। मध्य एशिया से जितने भी आक्रमणकारी आये थे वे इस काल तक भारतीय समाज द्वारा लगभग आत्मसात्त कर लिये जा चुके थे। अतएव उनकी मान्यताओं, उनके रीति-रिवाजों का हमारे समाज पर असर होना भी प्रारंभ हो चुका था। इस काल में दक्षिण भारत के राजघरानों में एक नयी प्रथा जन्म लेती है जिसमें राजा गद्दी पर बैठने के दौरान लगभग चार-पांच सौ आदमियों का एक दल बनाता था, जो राजा द्वारा बनाये गये भात को ग्रहण करता था, और ऐसे लोगों को राजा की मृत्यु के बाद आग में जलकर अपना जीवन नष्ट करना होता था। साथ ही राजा की पत्नी भी जलायी जाती थी। चेदि राजा गांगेय देव की सौ रानियां थीं जो उसके साथ अग्नि में जलकर स्वर्गलोक सिधारीं। इस प्रथा के दो महत्वपूर्ण लाभ हुए-एक तो राजा के प्रति लोगों की निष्ठा का प्रमाण मिलता था और दूसरे, राजा के निकट संपर्क में रहनेवाले लोग उसकी हत्या करने से डरते थे। राजघरानों में सती के कारणों में शायद इस बात का भी महत्व रहा हो कि हरम, जहां से राजा के खिलाफ षड्यंत्र रचे जाने का हमेशा खतरा बना रहता था, सारी स्त्रियों के राजा के साथ जलकर सती जाने से यह भय समाप्त हो जाता था।
हर्ष वर्धन क पश्चात् सामंतवाद ने शासक वर्ग के बीच युद्व को जीवन का एक अनिवार्य अंग बना दिया था।
राजपूतों की मृत्यु के बाद अपने सतीत्व की रक्षा न कर पाने के भय की वजह से या फिर एक विधवा के कठोर जीवन बिताने से पति की लाश के साथ जलकर मर जाना ही बेहतर समझती
ऋग्वेद में देवियों की संख्या में अपेक्षाकृत कमी व बहुपति विवाह भी इसी दिशा की ओर संकेत है।
युद्ध वैदिक अर्थतंत्र का एक प्रमुख आधार था। वीर पुरुषों की उत्पत्ति के लिए महिलाओं की आबादी में निरंतर वृद्धि एक अनिवार्य शर्त थी। शायद यही वजह है कि आर्य सती प्रथा से अवगत होते हुए भी इसे तरजीह देना कतई पसंद नहीं करते थे। महत्वपूर्ण बात है कि पूर्ववैदिक काल में स्त्रियों की सामाजिक हैसियत भी खासी अच्छी थी। विधवाओं के पुनर्विवाह की हमें चर्चा मिलती है। ऐसा प्रतीत होता है कि पूर्ववैदिक काल का जो आर्थिक ढांचा था उसमें महिलाओं को प्रमुख स्थान प्राप्त है। यह तथ्य मतलब से खाली नहीं है कि आर्य कन्याओं के लिए दुहितृ शब्द का इस्तेमाल किया है। ऐसा कहा जा सकता है कि संपत्ति, जिसमें मूलतः पशुधन शामिल था, का हस्तांतरण औरत से औरत के हाथों में ही होता था। सती जैसी प्रथाओं पर बल देना तत्कालीन आर्य समाज के लिए अत्यंत ही अलाभकारी साबित हो सकता था। शायद यही वजह है कि ऋग्वेद में सती का उल्लेख सिर्फ प्रतीकात्मक रूप में है। [ महाकाव्य काल ] महाभारत में हमें रामायण की तुलना में कबीलाई समाज के अधिक अवशेष प्राप्त होते हैं, इसलिए विभिन्न कबीलों के बीच युद्ध की संभावना भी अधिक रही होगी। स्वयं महाभारत के युद्ध में लगभग सारा भारत शामिल हुआ प्रतीत होता है। इसलिए महाभारत में हम विधवा पुनर्विवाह एवं नियोग दोनों ही प्रथाओं का उल्लेख पाते हैं। इस ग्रंथ में संतानोत्पत्ति की शक्ति प्राप्त करने के पहले ही लड़कियों की शादी कर देने पर जोर दिया जाने लगा जिसके पीछे उनकी मानसिकता अधिक से अधिक संतानोत्पत्ति की ही रही होगी। लोगों की आम धारणा थी कि मासिक काल में नारियों में संतानोत्पत्ति की अपार शक्ति होती है। अतः इसका वे एक भी अवसर हाथ से निकल जाने देना न चाहते थे। यही वजह है कि महाभारत सती प्रथा के मामले में उदासीन है। गुप्तकाल तक आते-आते समाज में नारियों की स्थिति दयनीय हो जाती है। उसकी श्रेणी शूद्रों की श्रेणी के साथ मिला दी जाती है। उसे स्वयं एक संपत्ति का दर्जा दे दिया जाता है। नियोग की प्रथा समाप्त हो चुकी होती है। बाल विवाह का चलन व्यापक होता है और विधवाओं के लिए आचरण के कठोर नियम बनते हैं। गुप्तकालीन स्मृतियों में विधवा के जीवन के दो मार्ग बतलाए गए हैं-ब्रह्मचारिणी अथवा सती। [विष्णु तथा वृहस्पति ] छठी सदी के एरण (मध्य प्रदेश) लेख में भानुगुप्त के सेनापति गोपराज की पत्नी के सती होने का उल्लेख मिलता है। भारतीय इतिहास में यह सामंतवाद का काल है जिसमे स्त्री की पुरानी गरिमा जाती रही। दास अपने सामंत के प्रति वफादार था तो छोटे सामंत अपने बड़े सामंत के प्रति। निष्ठा के इस नये युग में पत्नी अपने पति की वफादार बनी। मध्य एशिया से जितने भी आक्रमणकारी आये थे वे इस काल तक भारतीय समाज द्वारा लगभग आत्मसात्त कर लिये जा चुके थे। अतएव उनकी मान्यताओं, उनके रीति-रिवाजों का हमारे समाज पर असर होना भी प्रारंभ हो चुका था। इस काल में दक्षिण भारत के राजघरानों में एक नयी प्रथा जन्म लेती है जिसमें राजा गद्दी पर बैठने के दौरान लगभग चार-पांच सौ आदमियों का एक दल बनाता था, जो राजा द्वारा बनाये गये भात को ग्रहण करता था, और ऐसे लोगों को राजा की मृत्यु के बाद आग में जलकर अपना जीवन नष्ट करना होता था। साथ ही राजा की पत्नी भी जलायी जाती थी। चेदि राजा गांगेय देव की सौ रानियां थीं जो उसके साथ अग्नि में जलकर स्वर्गलोक सिधारीं। इस प्रथा के दो महत्वपूर्ण लाभ हुए-एक तो राजा के प्रति लोगों की निष्ठा का प्रमाण मिलता था और दूसरे, राजा के निकट संपर्क में रहनेवाले लोग उसकी हत्या करने से डरते थे। राजघरानों में सती के कारणों में शायद इस बात का भी महत्व रहा हो कि हरम, जहां से राजा के खिलाफ षड्यंत्र रचे जाने का हमेशा खतरा बना रहता था, सारी स्त्रियों के राजा के साथ जलकर सती जाने से यह भय समाप्त हो जाता था।
हर्ष वर्धन क पश्चात् सामंतवाद ने शासक वर्ग के बीच युद्व को जीवन का एक अनिवार्य अंग बना दिया था।
राजपूतों की मृत्यु के बाद अपने सतीत्व की रक्षा न कर पाने के भय की वजह से या फिर एक विधवा के कठोर जीवन बिताने से पति की लाश के साथ जलकर मर जाना ही बेहतर समझती
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