वेदिक क्षत्रिय

ब्राहृणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्य: कृत:। ऊरू तदस्य यद्वैश्य: पदभ्यां शूद्रोऽजायत ।। (इस विराट् पुरुष के मुंह से ब्राह्मण , बाहु से राजस्व (क्षत्रिय), ऊरु (जंघा) से वैश्य और पद (चरण) से शूद्र उत्पन्न हुआ।

Monday, 29 August 2011

वर्ण व्यवस्था

वर्ण व्यवस्था हिन्दू धर्म में प्राचीन काल से चले आ रहे सामाजिक गठन का अंग है, जिसमें विभिन्न समुदायों के लोगों का काम निर्धारित होता था ।वर्ण का शब्दिक अर्थ है - वरण करना या   रंग । वरण का अर्थ है - चुनना अथवा व्यवसाय का निर्धारण। ऋग्वेद में ‘आर्य’  तथा दस्यु’  में अन्तर स्पष्ट करने के लिए ‘वर्ण’  शब्द का प्रयोग हुआ है।यहाँ पुरोहित, राजन्य, विश तथा शूद्र शब्दों का उल्लेख बार-वार गया है । ऋग्वेद के अंतिम दसवें मंडल के पुरूष सुक्त में चार वर्णो का वर्णन हे किन्तु उक्त दसवे मंडल को बाद में जोड़ा हुआ माना गया है।ब्रम्हणोस्य मुखमासीत वाहू राजन्यकय्तः।
अरुःयत तद्वैश्यः पदभ्यांशूद्रो आजयता॥
अर्थात ब्राम्हण का जन्म ईश्वर के मुख से, क्षत्रिय का हाथ से, वैश्य का जांघ से और शुद्र का पांव से हुआ बताया गया। 
  • पूजा-पाठ व अध्ययन-अध्यापन आदि कार्यो को करने वाले --ब्राह्मण
  • शासन-व्यवस्था तथा युद्ध कार्यों में संलग्न वर्ग --क्षत्रिय
  • व्यापार आदि कार्यों को करने वाले-- वैश्य
  • श्रमकार्य व अन्य वर्गों के लिए सेवा करने वाले 'शूद्र कहे जाते थे।      वैदिक काल की प्राचीन व्यवस्था में   वर्ण वंशानुगत नहीं होता था लेकिन गुप्तकाल के आते-आते आनुवंसिक आधार पर लोगों के वर्ण तय होने लगे।
 वैदिक काल में वर्ण-व्यवस्था जन्म-आधारित न होकर कर्म आधारित थी|
वर्ण व्यवस्था का जन्म कर्मगत आधार पर समाज के श्रम विभाजन के कारण हुआ था। इस विभाजन के पीछे समाज के स्थायित्व और उसके सुचारू संचालन की कामना अवश्य ही थी। आर्यावर्त में वर्ण व्यवस्था के अतिरिक्त विश्व की अन्य सभ्यताओं,जैसे कि ईरान और मिस्र , में भी वर्ण व्यवस्था का जन्म हुआ । यह सभी व्यवस्थाएं कर्मगत ही थी। जान अवेस्ता (जोराष्ट्रियन धार्मिक ग्रन्थ) में प्रारंभिक ईरानी समाज को तीन श्रेणियों -शिकारियों, पशुपालकों और कृषकों, में बांटा गया हैं (विलियम क्रूक - दा ट्राइब एंड कास्ट ऑफ़ दा नॉर्थ वेस्टर्न प्रोविंस एंड अवध)। यह सभी श्रेणियां कर्मगत हैं। कालांतर में जब ईरानी सामाजिक व्यवस्था उन्नत हुई तो चार वर्णों में विभक्त हुई। यह वर्ण थे - अथोर्नन (पुजारी), अर्थेश्तर (योद्धा), वास्तारिउश (व्यापारी) और हुतुख्श (सेवक)। कर्मगत आधार पर पनपे इन चारों वर्णों की वैदिक भारत से समानता विस्मयकरी हैं। अन्य जोराष्ट्रियन ग्रन्थ डेनकार्ड (जो कालांतर में लिखा गया ) में चार वर्णों के जन्म का उल्लेख हैं भी आश्चर्यजनक रूप से वैदिक पुरुषसूक्त का अनुवाद ही प्रतीत होता हैं (पुस्तक ४ -ऋचा १०४ )। किंतु इससे यह अवश्य सिद्ध होता हैं कि स्वतंत्र रूप से विकसित हुए इन दो सभ्यताओं में सामाजिक संरचना का रूप अवश्य ही कर्मगत था। यह भी सम्भावना हैं कि सिन्धु घटी सभ्यता काल में ही इस प्रकार की व्यवस्था का जन्म हुआ हो और वो अपने सहज रूप के कारण ईरान में भी अपनाई गयी हो। आर्यों के भारत आगमन के सिद्धांत में विश्वास करने वाले यदि ये तर्क रखते हैं कि ऐसा एक ही शाखा से जन्मे होने के कारण इन सभ्यताओं में समानता के कारण हैं तो मैं स्पष्ट करना चाहूँगा कि इस सिद्धांत के अनुसार ही वेदों की रचना आर्यों के भारत आने के बाद हुई हैं। उस समय के तत्कालीन जोराष्ट्रियन ग्रन्थ जान अवेस्ता में तीन ही श्रेणियों का वर्णन हैं । डेनकार्ड की रचना नवी शताब्दी के आसपास की हैं।
इसी काल के आसपास मिस्र में भी कर्म आधारित वर्ग का जन्म हुआ जिसमे दरबारी, सैनिक, संगीतज्ञ, रसोइये आदि कर्माधारित वर्गों का जन्म हुआ। मिस्र के शासक राम्सेस तृतीय के अनुसार मिस्र का समाज भूपतियों, सैनिकों, राजशाही, सेवक, इत्यादी में विभक्त था (हर्रिस अभिलेख (Harris papyrus ) जेम्स हेनरी ब्रासटेड - ऐन्सीएंट रेकॉर्ड्स ऑफ़ ईजिप्ट पार्ट ४)। इसी काल में यूनानी पर्यटक हेरोडोटस (Herodotus) के वर्णन के अनुसार मिस्र में सात वर्ण थे - पुजारी, योद्धा, गो पालक, वराह पालक, व्यापारी, दुभाषिया और नाविक। इनके अतिरि़क उसने दास का भी वर्णन किया हैं (उसके अनुसार दास बोलने वाले यन्त्र/औजार थे जोकि दास के अमानवीय जीवन को दर्शाता हैं)। इसके अतिरिक्त एक अन्य यूनानी पर्यटक स्त्रबो (Strabo) के वर्णन के अनुसार शासक के अतिरिक्त समाज में तीन भाग थे - पुजारी, व्यापारी और सैनिक। (यूनान की प्रचिलित दास व्यवस्था के कारण स्त्रबो ने भी दासों का उल्लेख आवश्यक नहीं समझा होगा)। मिस्र की सामाजिक व्यवस्था में मुख्यतः लोग अपने पैत्रिक कामों को वंशानुगत रूप से अपनाते रहे। इस प्रकार ये व्यवस्था कर्मगत होते हुए भी जन्मणा प्रतीत होती हैं।
भारतीय संस्कृति में भी यह व्यवस्था श्रम-आधारित ही थी और इस प्रकार का वर्ग-विभाजन सामाजिक आवश्यकता के कारण ही उत्पन्न हुआ। इसे किसी भी रूप से धार्मिक और वैदिक नहीं माना जा सकता। इसी कारण भारतीय इस्लामिक और ईसाई पद्धतियों में भी जाति का स्वरुप बना रहा । दक्षिण भारतीय विद्वान "के श्रीनिवासुलु"   वर्ण व्यवस्था का आधार सिद्धान्तिक रूप से सामाजिक मानते हैं न की धार्मिक। "यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफोर्निया , बर्कली " के "जोर्ज एल हार्ट" द्वारा किए तमिल संगम साहित्य और १००-७०० ईस्वी के बीच रचित अन्य दक्षिण भारतीय सहित्य अध्ययन के अनुसार भी वर्ण व्यवस्था वैदिक नहीं मानी जा सकती। अवैदिक समाज में भी एक प्रकार के वर्ग-विभाजन और पुजारी प्रधान समाज के रूप मिलते हैं (जोर्ज हार्ट के लेख "दक्षिण भारत में जाति के प्रारंभिक साक्ष्य" (Early Evidence for Caste in South India ) के अनुसार)। इस सम्बन्ध में विलियम क्रूक के सम्पूर्ण अवध (और मूल रूप से सारे भारतीय ) के वर्णों के बीच मानवीय संरचना के अध्ययन से (अन्थ्रोपोमेट्री स्टडी - anthropometry study) से निकला गया यह निष्कर्ष कि सभी भारतीय वर्ण एक ही मानव-प्रजाति के संतति हैं और उनमे कोई विजित और पराजित जातियों का मेल नहीं मिलता हैं -  यहाँ पनपते समाज ने अपनी श्रम की आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए वर्ण-व्यवस्था का विकास किया। (शूद्र समाज कोई आर्यों से पराजित जाति नहीं हैं।)
  
वास्तव में उस समय गौरवर्ण आर्य और श्यामवर्ण दास दो ही वर्ण थे जिन्हें एक ओर तो त्वचा का गौर और श्याम रंगभेद और दूसरी ओर विजेता और विजित का सत्तागत भेद और सांस्कृतिक भिन्नत्व एक दूसरे से पृथक्‌ करता था। दासवर्ण बाद में शूद्रवर्ण हुआ और इसके साथ आर्यो के तीनों वर्गो ने मिलकर चातुर्वर्ण्य की सृष्टि की। जो जनजातियाँ, आर्य समाज से दूर रहीं उन्हें वर्णव्यवस्था में सम्मिलित नहीं किया गया। वर्णों मे अंतर्विवाह का निषेध नहीं था और इस निषेध का न होना मूल आर्य समाज की परंपरा के अनुकूल था। केवल प्रतिलोम विवाह निषिद्ध थे। [ प्रतिलोम विवाह, ---वह विवाह जिसमें पुरुष छोटे वर्ण का और स्त्री उच्च वर्ण की हो ]
उत्तर वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था और कठोर रूप से पारिभाषित तथा व्यावहारिक हो गई ।   वर्ण- व्यवस्था   अ ब     जन्म-आधारित    हो    गई ।
ईसी पूर्व छठी सदी में, इस कारण, बौद्ध और जैन धर्मों का उदय हुआ


ईसा पूर्व छठी सदी तक वैदिक कर्मकांडों की परंपरा का अनुपालन कम हो गया था । उपनिषद ने जीवन की आधारभूत समस्या के बारे में स्वाधीनता प्रदान कर दिया था । इसके फलस्वरूप कई धार्मिक पंथों तथा संप्रदायों की स्थापना हुई । उस समय ऐसे किसी 62 सम्प्रदायों के बार में जानकारी मिलती है । लेकिन इनमें से केवल 2 ने भारतीय जनमानस को लम्बे समय तक प्रभावित किया - जैन और बौद्ध ।
 बौद्ध और जैन धर्म का उत्थान सनातन धर्म में पुरोहितों के बढ़ते वर्चस्व और कर्मकांड की प्रधानता के विरोध में था. ब्राह्मणों ने दरअसल धर्म के मूल तत्व को ग़ायब कर उसकी जगह केवल यज्ञों और कर्मकांड को ही प्रधानता दे दी. यज्ञों में हिंसा ही प्रधान हो गई. यही वजह रही कि बौद्ध धर्म ने अहिंसा पर इतना ज़ोर दिया. ब्राह्मणों के विरोध का ही नतीजा रहा कि वर्ण व्यवस्था में पहले पायदान पर क्षत्रिय आ गए. कई बौद्ध ग्रंथों में इस तरह की बात कही गई है कि क्षत्रिय का स्थान वर्ण-व्यवस्था में सबसे ऊंचा है | जातकों में तो यह भी वर्णन है कि जब बुद्ध का अवतार होने वाला था, तो देवगणों ने उनसे पूछा था कि वह किस वर्ण में जन्म लेंगे. पहले बुद्ध का अवतार ब्राह्मणी के गर्भ से होने वाला था, लेकिन ब्राह्मणों को हीन मानकर ही फिर बुद्ध का जन्म क्षत्राणी माता के गर्भ से कराया गया. सनातन धर्म के दशावतारों (वैसे कुल अवतार तो चौबीस माने गए हैं) में परशुराम और वामन का ही जन्म ब्राह्मण कुल में हुआ था, बाक़ी सभी अवतार भी क्षत्रिय ही हैं.
मूल तौर पर बौद्ध और जैन धर्म लक्ष्य था सनातन धर्म में आई विकृतियों को हटाना और ब्राह्मणों की सत्ता को उखाड़ फेंकना. इसीलिए ब्राह्मणों के ख़िला़फ कठोरतम शब्दों का प्रयोग किया गया. मज्झिमनिकाय में कहा गया है- वेदपाठ करता हुआ ब्राह्मणों का समूह दरअसल कुत्तों का समूह है, जिसमें हरेक पिछला कुत्ता अगले की पूंछ मुंह में दबाए और आसमान की तऱफ मुंह कर के ऊं, ऊं का उच्चारण कर रहा है.


 

भारतीय समाज में कालांतर में उत्त्पन्न हुए मध्यम वर्ग (जैसेकि कायस्त ) भी वर्ण व्यवस्था के कर्मगत रूप को उजागर करता हैं। सामाजिक विकास के साथ जब कृषि और पशु-पालन जैसे प्राथमिक व्यवसायों को छोड़ कर शिल्प, कला और निर्माण जैसे व्यवसायों के विकास हुआ उनके साथ ही वाणिज्य, कर, राजस्व जैसे जटिल प्रक्रियाओं का भी उदय हुआ। इन जटिल सामाजिक विकास क्रम में समाज को एक नए मध्यम वर्ग की आवश्यकता हुई तो लेखाकारों, मुनिमो, महाजनों, धनिकों के नए समुदायों का जन्म हुआ। यह समुदाय चार वर्णों की परिभाषा पर पूर्ण रूपेण खरे नहीं उतरते किंतु यह समाज की आवश्यकता ही थी जिसने इन वर्गों को भी न केवल धार्मिक मान्यता ही दी किंतु साथ ही उन्हें उनके गुणों के आधार पर संकर वर्णों में भी जगह दी। उदाहरणार्थ - कायस्थों को ब्राह्मण और क्षत्रिय का मिला जुला रूप माना गया हैं नाकि मनु-स्मृति के अनुसार उन्हें सूत माना गया । (  प्रचलित किम्वदंती के अनुसार - चित्रगुप्त के ब्रह्मा जी के काया से उत्पन्न होने वाले १७ वे पुत्र के नाते कई जगह कायस्थों को ब्राह्मण का ही रूप माना जाता हैं )।

३०६-२९८ ईसा पुर्व में मेगस्थनीज मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में सेल्यूकस का राजदूत बनकर रहा था। उसने अपनी पुस्तक ‘इण्डिका’ में पाटलिपुत्र नगर की विस्तृत चर्चा की है। इसमे उसने चार वर्णों के स्थान पर सात वर्णों का उल्लेख किया हैं - दार्शनिक, कृषक, चरवाहे (पशु-पालक), शिल्पकार, योद्धा , निरीक्षक (अधिकारी) और मंत्री। इसके अतिरिक्त सम्राट तो प्रमुख होता ही था। इस प्रकार हम उस समाज में चार वर्णों का स्पष्ट रूप नहीं पाते हैं। जो इस बात को उजागर करता हैं कि या तो उस समय इन वर्णों का उदय नहीं हुआ था या फ़िर वे इतनी महत्ता नहीं रखते थे कि वे समाज में स्पष्ट रूप से दिखें।उस काल में वर्ण-व्यवस्था के बंधन और नियम उतने कठोरता से नहीं पालन किए जाते थे और उनका कोई भी महत्व नहीं था।

हर्षवर्धन के शासनकाल (६४१ ई.) में भारत आए चीनी यात्री ह्वेन त्सांग (ह्वेनसांग) ने यात्रा-वृतान्त सी-यू-की में सिन्ध प्रदेश में शूद्र शासक क वर्णन किया हैं।उस समय सिंध में अन्तिम हिंदू शासक राजा दाहिर का शासन था -वे ब्राह्मण वंशज थे (और संभवतः अपनी सौतेली बहन से विवाह के कारण शूद्र माने जाने लगे हों।) । यह तो स्पष्ट नहीं हैं कि ह्वेन त्सांग ने उस शासन को शूद्र की उपाधि क्यों दी किंतु इस वर्णन से यह तो सिद्ध होता ही हैं कि राजकीय कार्य क्षत्रियों तक ही सिमित नहीं थे। उन्हें ब्राह्मण या शूद्र कोई भी कर सकता था।
आंध्र-प्रदेश के शूद्र वंशीय शासकों ने तो स्वयं अपनी शूद्रता पर गर्व करते हुए शिलालेख लगवाये (सिन्गामा-नायक, १३६८)। इनमें तीनो वर्णों से शूद्र वर्ण को शुद्धता के आधार पर श्रेष्ठ माना गया हैं। इसमें लिखा हैं कि जिस प्रकार प्रभु के चरणों से निकल कर गंगा पवित्र हैं वैसे ही ईश्वर के चरणों से उत्पन्न शूद्र भी पवित्र हैं।
Posted by N K SINGH at 13:51
Email ThisBlogThis!Share to XShare to FacebookShare to Pinterest

No comments:

Post a Comment

Newer Post Older Post Home
Subscribe to: Post Comments (Atom)

NITESH KUMAR SINGH

NITESH KUMAR SINGH
MYSELF

Followers

Blog Archive

  • ▼  2011 (8)
    • ▼  August (5)
      • आर्य
      • आर्यों में सामाजिक विभाजन
      • अनार्य
      • वर्ण व्यवस्था
      • सती प्रथा
    • ►  September (3)

About Me

N K SINGH
First class Post graduate from Agra university & UGC NET qualified in Ancient history & culture & archeology.
View my complete profile

SHRIKRISHNA & BALRAMA

SHRIKRISHNA & BALRAMA


Awesome Inc. theme. Theme images by molotovcoketail. Powered by Blogger.